पंचकोश जिज्ञासा समाधान (17-02-2025)
कक्षा (17-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
ईडा नाडी के द्वारा बाए छिद्र से प्राण वायु को आकृष्ट करके उदर में ग्रहण कर लेना चाहिए और शरीर के बीच पर प्रतिष्ठित जो अग्नि तत्व है उसी का चिन्तन करते हुए ऐसा भाव करना चाहिए कि उस वायु का सानिध्यय प्राप्त करके अग्नि देव ज्वालाओ के सहित मानो प्रज्वलित हो उठे है और इसके पश्चात प्रणव के बिंदु एवं नाद से संयुक्त होकर अग्नि बीज तत्व रं का चिंतन करना चाहिए इसके पश्चात पिंगला नाड़ी द्वारा नासिका के दक्षिण छिद्र द्वारा प्राण वायु विधिपूर्वक धीरे धीरे बर्हिगमन करना चाहिए, फिर पिंगला नाड़ी के माध्यम से इसी तरह करना चाहिए, इसका क्या अर्थ है
- ध्यान प्रक्रिया को इसमें जोड़ा गया है जैसे बाए नासिका से प्राण को खीचे तो प्राण को चमकीले Particle से सविता देवता के रूप में खीचें, उसे सुर्य चक्र / मणीपुर चक्र / Solar Plexus में ले गए
- मणीपुर चक्र के वहा कुण्डलिनी का केंद्र है, मणीपुर + स्वादिष्ठान + मूलाधार -> तीनो मिलाकर नाभी कंद कहलाता है, वहा पर ले जाकर सुर्य का ध्यान किए, वहा समर्थ चक्रवात के रूप में सुर्य का तेज विद्यमान है
- सारे शरीर को गर्मी वही से मिलता है, वहा कुण्डलिनी है तथा वहा सविता का तेज जब वहा जा रहा है तो वह और भी अधिक प्रज्वलित होता है, समर्थ चक्रवात में बदल रहा है तथा वहा का प्राण तत्व सारे शरीर में वही से संचारित होता है
- ये अन्नमय कोश के रूप में स्थूल शरीर का क्रेंद्र है, स्थूल शरीर में वहा से उर्जा सब जगह जा रही है और वहा से उठने वाला जो बीज मंत्र रं है, उसका उच्चारण मन ही मन कर सकते है या ॐ का ध्यान / स्मरण / उच्चारण करे
- प्रत्येक केंद्र में हम ॐ का स्मरण कर सकते हैं
- या केवल Peace का ध्यान करे, पूरे शरीर में जाकर सम्पूर्ण शरीर को ओजमय बना रहे हैं, नस नस में / कण कण में प्राणाग्नि जा रहा है तो इस तरीके से अग्निपिंड / अग्निपुंज अपने आप को अनुभव करना है
- बाए नाक से लिया तथा दाए से गया फिर दाहिना नाक से तथा बाए से छोडे तो दोनों में अंतर यह है कि जब बाए से खीचते है तो उसकी चैतन्यतयता का ध्यान करना है
- जब दाए से खींचते है तो उसके उर्जा पक्ष का ध्यान करना है, पिंगला नाड़ी उर्जा पक्ष है, ईडा नाड़ी चेतना पक्ष हैं, दोनो मिलकर के किसी भी तंत्र को चलाते हैं
प्रणव बिंदु एवं नाद बिंदु का क्या अर्थ है
- प्रणव -> नाद से सब निकला है, बीज मंत्र पंखुड़ियों में लिखा रहता है, जैसे मूलाधार का लं बीज मंत्र है तथा मूलाधार की 4 पखुडियों के अपने बीज मंत्र है, ये सभी नाद है, इन सभी के उच्चारण से हम मूलाधार चक्र का लाभ ले सकते हैं
- नाद = उर्जा तरंगे = तरंगों की ध्वनियां सुनाई नही देगी लेकिन उस तरंग की एक ध्वनि है जो अत्यंत सूक्ष्म है, इसलिए उसे प्रणव (ॐ) कहा गया
- सारा संसार ॐ से ही निकला है, यहा प्रणव शब्द का प्रयोग कर डाला
- बीज मंत्र का उपयोग चिल्लाकर नहीं मन ही मन करना है
- मूलाधार का ध्यान करे वही बीच है, उसी को बीचो बीच मानते हैं
- पैर की लम्बाई देखे तथा उपर धड़ की लम्बाई देखे या जब पश्चिमोतान आसन करते है तो मूलाधार बीचों बीच पड जाता है
केनोपनिषद् में आया है कि समस्त प्राणी उस ब्रह्म से ही प्रेम करते है और उसे पाना चाहते है वह तद्वन नाम से प्रसिद्ध है, ब्रह्म के इसी तद्वन स्वरूप की सभी को उपासना करनी चाहिए, जो साधक ब्रह्म के इस स्वरूप को जान लेता है उसे सब प्राणी अपना मानने लगते हैं का क्या अर्थ है
- तद्वन = ज्ञान का जंगल = चेतना का अथाह समुद्र -> ईश्वर के ब्रह्म तत्व के बारे में यहा तद्वन शब्द का प्रयोग यहा किया गया है
- उसको यदि जान गया तो समझे कि जीवन के लक्ष्य को पा लिया
- चेतना का समुद्र = आनन्द व शांति का जो समुद्र है वही तद्वन है
सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र में आया है कि संधना वंदन आध्यात्म साधना का अनिवार्य अंग है, संध्या का कृत्य गायंत्री उपासना के बिना नहीं हो सकता, इसके उपरांत आगे की विशेष साधनाएं अपनाई जाती रही है, एक अनुष्ठान व दूसरा पुरश्चरण, कृपया तीन संध्या अनुष्ठान व पुरश्चरण को स्पष्ट करे
- यदि कोई नया साधक है तो उसको बताया जाता है कि वह गायंत्री साधना कहा से शुरू करे तो उनके लिए संध्या वंदन से शुरुवात किया जाता है
- पहले अपने खान पान का ध्यान रखे तथा अपना दिन चर्चा ठीक रखे
- सुबह समय से ब्रह्म मुहूर्त में उठें तथा रात को सही समय पर सोए, खान पान पर नियंत्रण रखें
- अब गायंत्री साधना के रूप में नियमित उपासना हो तो उसमें 15 मिनट गायंत्री मंत्र का जप तथा सविता का ध्यान करे
- अपनी आत्मा से सुर्य की आत्मा सविता को जोडने को संधि कहा जाता है
- संधि का अर्थ जहा दिन व रात्री का संगम है / संधि है, जैसे ब्रह्म मूर्हुत -> ब्रह्म सभी सधियों में वास करता है
- सुबह में अभ्यास से शुरू करना चाहिए तथा जब लंबे अभ्यास से यह Routine बन जाए कि बिना जप के अब रहा नहीं जाए कि चाहे सब छूट जाए पर संध्या वंदन ना छूटे तो उसके बाद अगला चरण उठाना चाहिए
- अगला चरण यह है कि नवरात्रियों में 24000 गायंत्री मंत्र का 9 ही दिन में जप कर लिया जाए ताकि थोड़ा अधिक प्राण शक्ति को निकाला जाए व ईश्वर के प्रति लगाया जाए
- जीवन में हमें कुछ बडे काम भी करने होते है जिसके लिए प्राण की आवश्यकता होती है
- अपने भीतर की बुराईयां हमारे मार्ग की सबसे बड़ी अवरोधक है
- अपने भीतर की बुराइयों को वही हटा सकता है जिसके भीतर प्राण धधक रहा हो -> उसके लिए अनुष्ठान करना होता है
- फिर पुरुश्चरण जो होता है, वह थोडा और बडे पैमाने पर कार्य करना होता है, जैसे एक साल में 5 लाख जप का अनुष्ठान कर लिया -> यदि हमें समाज में बडे काम करने हैं तो उसके लिए यह पुरुश्चरण किया जाता है
- पूज्य गुरुदेव ने 24 लाख के 24 पुरुश्चरण किए थे, जिसमें 24 साल बीता दिए
- यह पुरुश्चरण उसी नियामवली में एक लंबा अध्याय होता है, हम एक ही बार में उसमें (पुरुश्चरण में) प्रवेश नहीं करेंगे फिर उसमें मन नहीं लगेगा तथा साधक बीच में ही छोड़कर भाग जाएंगे तो धीरे धीरे अपनी औकात बढ़ानी चाहिए
वांग्मय 15 में आया है कि प्रत्येक मनुष्य एक ब्रह्माण्ड है, उसकी आत्मा सूर्य के समान है, जिसके इर्द-गिर्द ग्रह भम्रण करते रहते हैं, मानवीय काया में भ्रमण करने वाले अणु परमाणु एक विशेष प्रकार की विद्युत (Bio Electric Potential) उत्पन्न करते है, उसी विद्युत से प्रभावित होकर मस्तिष्क से लेकर इंद्रिया तक तथा अन्य अवयव अपना काम करते है, जड़ में चेतना उत्पन्न होने का माध्यम यही है, कृप्या इसे कुछ स्पष्ट करे
- जब हम संध्या वंदन या मंत्र जप करते है तो 2 शक्तियों को जोडते है, आत्मा और परमात्मा या शुद्रता को महानता से जोडते है, तो अपने में कुछ न कुछ परिवर्तन / बदलाव आता है
- जब सब कुछ सही चल रहा होता है तो व्यक्ति ईश्वर को भूल जाता है तथा समझता है कि हमने सब पा लिया फिर विपत्ति आने पर याद आता है तथा क्रोध भी करता है
- तब पता चलता है कि इसके भीतर अभी कुछ शांत नहीं हुआ है
- ईश्वर इतना शांत व शीतल है कि सुर्य भी वहा जाते जाते समाप्त हो जाएगा
- गुरुदेव ने जब ईश्वर का साक्षात्कार करवाया था तो वह इतना शीतल था कि करोड़ों चंद्रमा भी उसके सामने कम पड़ रहे थे तथा इतनी तेजस्विता है कि करोड़ों सूर्य भी उसकी चमक के सामने फीके हैं
- यहा कहने का अर्थ यह है कि जब तक संध्या वंदन गहराई से नहीं करेंगे तथा केवल होठों तक ही जप ना हो बल्कि उसमें अपनी सत्ता को बिल्कुल भूल जाया जाए, ईश्वर के साथ पूर्ण रूप से घोल दिया जाए तथा उसे लंबे समय तक अनुभव भी किया जाए तथा यह भाव केवल ध्यान तक ही सीमित ना रहे तथा ध्यान से बाहर आने पर भुल्लकडी आने लगे, ऐसा नहीं करता बल्कि उस अवस्था को लंबे समय तक हर समय बनाए रखना है
- एक तरह से हम देखें तो हमसे अच्छा तो एक शराबी भी है जो पीने के बाद कम से कम एक-दो घंटा उसी नशे में झूमता है परंतु हम साधना या ध्यान करने के भी तुरंत बाद आनंद की उस अवस्था में नहीं रह पाते, साधना का एक नशा रहना चाहिए और वो तब होता है जब मन ही मन चलते फिरते सोहम् से अपने को स्मरण किया जाए
- सोहम् भाव से जब अपने को 24 घंटे स्मरण किया जाए तो साधु सहज समाधि भली वाली स्थिति आने लगेगी, कबीरदास जैसे संत इसी स्थिति में रहते थे और उस समय वहा कोई रोग दुखः नहीं पहुंच सकता तथा उस समय वहा Brain से Neuro Transmitter के रूप में Oxytocin, Dopamine, Andorphins तेजी से निकलते लगते है तथा शरीर के सभी रोग दुखोः को जलाकर भस्म कर देते हैं
- यह सब इतना अदभूत है तो उस दिव्यता को अपने भीतर प्रकट करना चाहिए
स ह व उपनिषद् में आया है कि उपवास में भात, धान व धान से बने पदार्थ, सत्तु, घी खाने का व्रत ले तो यही उपवास है, गुरुदेव ने आपातकाल में आजादी के समय में उन्होंने सत्तु खाया था तो क्या गुरुदेव का महापुरश्चरण उस समय चल रहा था तो इसे कैसे समझे
- गुरुदेव के पास अपने गुरु का संदेश आया कि जहा तक तुम्हारा अनुष्ठान पहुंचा है उसे वहा पर रोको तथा स्वतंत्रता संग्राम में कूद जाओ, यह आपात स्थिति है
- महर्षि रमण व अरविदों जैसी आध्यात्मिक शक्तियां भी उस स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी थी
- एक भक्त सिंह गया तो एक दूसरा भक्त सिंह जन्म ले ले, एक गांधी गया तो दूसरा गांधी जन्म ले ले
- ऐसे में पीछे से ब्रह्म बल फैका जाता है, कबीरदास के समय से ही उनके भीतर ब्रह्म बल / ब्रह्म उर्जा काफी थी
- उस ब्रह्म बल को उस समय इस्तेमाल करने की बात कही गई थी, उस समय उस उर्जा की जरूरत थी
- राष्ट्र के प्रति अपना धर्म कम न होने पाएं क्योंकि अभी लड़ाई में प्रहार के समय स्वतंत्रता सेनानी कही हिम्मत ना हार जाए
- एक जूनून पैदा करने के लिए ऐसे महापुरुष लोग पीछे से लगे रहते हैं
- बीच में 6 साल का विराम था तथा फिर से अपनी Terms & Condition पर Continue कर दिए थे,
- वहा पर जेल में जो भोजन मिलेगा वही करेगे तथा वहा तन्मात्रा का प्रयोग किया जाता है तथा जो भोजन मिला उसमें ब्रह्म को उन्होंने देखा, वे तो पहले से ही योगी थे
- जब अपनी चेतना को बिल्कुल ही ब्रह्म के रंग में रंग देगे तो किसी भी प्रकार का भोजन उन्हें प्रभावित नहीं करता
- ऐसे योगी के पास पदार्थ उनके करीब जाते ही अपना स्वरूप बदल लेता है तथा वह पदार्थ ब्रह्ममय हो जाता है
- यही साधक अवधूत की स्थिति में इसे पाता है
छान्दयोपनिषद् में 1.3.3 में आया है कि साधना में प्राण को संकल्प पूर्वक उच्च आदर्शो की दिशा में तरंगित करना उदगीथ है, यह क्रिया प्राण व अपान का अवरोध करके की जाती है, यहा पर प्राण को तरंगित करना तथा संकल्प लेने का क्या अर्थ है
- इसे इस प्रकार समझे कि प्राण व अपान का अवरोध करने का अर्थ कि इसे कुंभक की स्थिति में करे
- जिस Breathing में कुंभक नहीं है उसे प्राणायाम नहीं कहते, कुंभक ही प्राणायाम है, प्राण खींच कर के उस उर्जा को अपने भीतर घोलना पड़ता है नही तो सामान्य सांस सभी प्राणियो का चलता ही रहता है
- कुंभक की स्थिति में कितना Stamina है, यह महत्वपूर्ण है
- जब भारी वजन उठाते है तो व्यक्ति सांस को भरकर रोके रहता है, ना छोड़ता है ना ही लेता है
- रोकने की स्थिति में जब हमने Divine Energy को अपने भीतर लेकर खीचा तथा रोका तो अब उस प्राण को आदर्श की ओर लगाना चाहिए, मोड़ना चाहिए तला अपने को उत्कृष्ट बनाने में रूपांतरण करना चाहिए, क्षुद्रता का महानता में परिवर्तन, कथनी व करनी को एक करना, अपने भीतर व्यक्तित्व परिवर्तन करना तथा Negative को Positive में लेकर आना, ईर्ष्या, द्वेष व घृणा को प्रेम में बदलना पड़ता है
- अपने से लड़ना सबसे बडा काम है, इससे बड़ा कोई योद्वा नहीं
- गुरुदेव का एक वाक्य बड़ा चुभता है कि सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है जिसे स्वंय पर नियंत्रण नहीं
साधना क्रम में प्राण को संकल्प पूर्वक उच्च आदर्शो की दिशा में तरंगित करना, का क्या अर्थ है
- उच्च आदर्श का मतलब हम अपना युग निर्माण संकल्प ले, उसमें सारी बाते ऐसी कही गई है जो सभी मनुष्यों पर एक सामान लागु होती है
- कोई मजहबी बात उसमें नहीं है, हम लोग बात बात पर मजहबी बातो में उलझ जाते हैं, वहा पर हम च्युत हो जाते है तथा आदर्श नहीं रहें
- आदर्श वही हैं जो सब पर एक सामान लागु हो तथा सबके व्यक्तित्व को एक साथ उपर उठाए
- प्रार्थना में भाव यह हो कि ईश्वर केवल हमारी ही बुद्धि को नहीं अपितु सबकी (सभी प्राणियो / जीवो) की बुद्धियो को एक साथ उपर उठाकर ले चले
- सभी की चेतना को Refine करना तथा उपर की ओर ले जाना उदगीथ कहलाता है
- उदगीथ = ऐसा गायन, ऐसी तरगें, ऐसी उर्जा, ऐसी उमंग, ऐसा जोश, ऐसा प्राणों का उछाल, जो कि जीवन के व्यक्तित्व को नर पशु से देवता में बदले
- बांटने का गुण आ गए तो देवता बन गए, पहले रत्नाकर डाकू लूटने का काम करता था फिर जीवन देने का कार्य करने लगा, इसे ही परिवर्तन कहते हैं, यही उदगीथ है
पंचकोश साधना में वांग्मय 13 में आया है कि पंचकोश जागरण एवं कुंडलिनी जागरण जैसे क्रियाओ के मुख्य आधार ध्यान धारणा को ही बनाया गया है, जो हर साधना के साथ 5 – 5 सहायक साधनाएं अलग से भी रखी गई है, जिनका अभ्यास साधक कम्रशः बढ़ाता रहता है, का क्या अर्थ है
- पचकोश साधना में पांचो शरीर जब मिलते है तो कुछ काम होता है
- जैसे भोजन खाने के लिए स्थूल शरीर के हाथों की जरूरत पड़ रही है, मुंह में डालना, चबाना तथा बुद्धि भी काम आ रही है, ये सब सहायक है, हालांकि हम अभी केवल अन्नमय कोश की साधना ही कर रहे है लेकिन मनोमय कोश सहायक बन रहा है तथा भोजन को ऊपर ले जाने में बल की भी जरूरत पड़ रही है तो इसका अर्थ यह है कि यहां पर प्राणमय कोश की भी भूमिका है, बल कमजोर है तो अपने से भोजन नहीं खा पा रहा
- केवल एक ही कोश की साधना में हमें नही डूबना चाहिए, प्रतिदिन पांचो कोशो की साधना करनी चाहिए क्योंकि पांचो कोश मिलकर कार्य करते हैं
- भोजन करने में भावना यदि न हो तथा नाक मुंह सिकोडकर खाएंगे तो फिर वह फायदा नहीं करता है
- ईश्वर का प्रसाद मान कर खाए तथा परिश्रम पूर्वक कमाकर खाए तभी देह में लगता है नही तो रोगों का कारण बनता है
- बिना कमाए आदमी को खाने का हक नहीं है कुछ ना कुछ उपार्जन वह व्यक्ति अवश्य करें
- शरीर के भीतर पांचों कोश एक साथ कार्य करते है तो पांचो कोशो की शक्तियां सहायक बनती है, ये चेतना के विभिन्न स्तर है तथा ये उनकी सहयोगी साधनाएं है
- शरीर में केवल स्थूल मिट्टी ही नहीं अपितु पांचो तत्व भी है
- पूरी प्रकृति पंचधा प्रकृति है, पांचो के मिलने से वह formation बनता है
- सहायक अंगो को भी लाभ देना चाहिए, आसन तभी अच्छे से लाभ करेगा जब उसके साथ हम आहार शुद्धि तथा उपवास भी जोडते है
- तत्वशुद्धि में पांचो को शुद्ध करना है, ये सभी उसके घटक है तो इन सबको इष्टिका (ईकाइया) कहते है
- सहयोगी घटक बहुत काम आते है, बोलने की शैली भी बहुत महत्वपूर्ण है
- काम की बाते संक्षेप में कहें तथा सदैव दूसरे के हित की भावना सोचे
- किसी परीक्षा में यदि कोर्ड व्यक्ति पास कर गए तो वह उसे व्यक्ति विशेष की ही खूबी नहीं है बल्कि उस परीक्षा या कार्य में अनेक मदद जैसे घरवालो से / मौसम से / हवा से उसे मदद मिली तथा जिस गाड़ी से वह गया था वह गाड़ी भी खराब हो सकती थी या उससे भी कोई एक्सीडेंट हो सकता था इसमें पीछे वाले घटक का हमें स्मरण रहे तो हमारे भीतर Ego नहीं आती तथा कार्य भी बढ़िया होता है
सोहम् साधना चलते फिरते जीवन में कैसे उतारे
- भुल्लकडी न हो
- सोहम् भाव = मै शरीर नहीं आत्मा हूँ तो आत्मा के गुणों का स्मरण सदैव रहें कि मै शांत हूं मस्त हूँ तथा आत्मा किसी से लिप्त नहीं होती जबकि मेरी स्थिति यदि इसके विपरित रहती है तो मै सोहम् भाव में नहीं हूँ
- अपने को सदैव याद रखना होता है कि मेरा क्या गुण है, जब-जब हम यह भूला जाएंगे तभी वह आदमी कुछ अटपटा करेगा – इसी को साधना सबसे बड़ी साधना कही गई है तथा यह विज्ञानमय कोश में आता है
- केवल सोहम सोहम बोलना तथा साथ खींचना यह सोहम् साधन नहीं कहलाएगा, अपने आत्मबोधत्व को स्मरण करना है
- आत्म विस्मृति को आत्मस्मृति में बदलना यही सोहम् साधना है
- मैं शरीर में हूं परंतु मैं शरीर नहीं हूं इसे हर समय याद रखा जाए
- मेरा नाम जो मै बता रहा हूँ तथा मेरे certificate में जो है तो मन ही मन यह भी याद रखे कि मै झूठ बोल रहा हूं, क्योंकि मेरा नाम इन लोगों ने रखा तथा मै पहले से ही आत्मा का प्रकाश पुंज हूँ तथा आत्मा का कोई नाम ही नहीं होता है, आत्मा का नाम समाज वालो ने रखा परन्तु उससे पहले भी आपका अस्तित्व था
- आत्मस्मृति में रहने वाला व्यक्ति एक गजब की स्थिति में रहता है दुःख में भी उदास नही रहेगा, अपने को भूल गया है, इसलिए भले ही उदास हो जाए
- आत्म भाव में जब वह रहेगा तो कभी डरेगा भी नहीं तथा कष्ट भाव में कभी कराहगे भी नहीं, वह सदा मस्त रहता है
- इसलिए हमें सोहम् भाव को मजबूत करना है, यह भाव धीरे-धीरे समझदारी से काम लेने पर आता है 🙏
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