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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (17-01-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (17-01-2025)

आज की कक्षा (17-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

कठोपनिषद् में आया है कि यह प्रणव ही आत्मसाक्षात्कार का श्रेष्ठ अवलम्बन है, यही परमात्मा के ध्यान का आधार होने से सर्वश्रेष्ठ है, इस ब्रह्म की प्राप्ति के आश्रय को जानकर साधक गण ब्रह्म लोक को प्राप्त करते हैं, का क्या अर्थ है, प्रणव क्या है

  • प्रणव = पुल = भवसागर से पार करने वाला पुल = सभी प्रकार के दुखों से पार कराने वाला पुल
  • एक जीवात्मा तथा एक परमात्मा
  • एक मूलाधार में तथा एक सहस्तार में
  • दोनो को मिलाना है -> या तो तैर कर जाए या पुल से जाए
  • ॐ को प्रणव कहते है, यह (ॐ) पुल का काम करता है, यह उदगीथ भी है, उड़ाकर ले जाएगा
  • ॐ की साधना करे तथा उसे पचाएं
  • सारे संसार को ॐ ही उत्पन्न करता है, जिसने सबको उत्पन्न किया है तो यदि उसकी मदद लेगे तो सुविधा होगी
  • पचाने का अर्थ = ॐ एक प्रकाश ज्योर्तिलिंग (ज्योति [प्रकाश] + लिंग [पहचान]) है -> ईश्वर एक तेज के रूप में है
  • वह तेज हमें हर जगह बढाना होगा, शरीर में तेज (अग्नि) नहीं रहेगा तो वहा अंधेरा (दुःख व कष्ट) रहेगा
  • ॐ एक ऐसा तेज है जो सर्वव्यापी है और कहीं भी लिप्त नहीं होता
  • एक ऐसा दिव्य ज्ञान एक ऐसा डाइमेंशन यहां पर है जो सब में घुला हुआ है परंतु किसी में भी लिप्त नहीं होता
  • संसार के क्रिया कलाप करते हुए हम फंसे नहीं / बंधन में ना आए
  • उस प्रकाश को ज्ञान कहा गया है, ज्ञान को प्रकाश कहा जाता है
  • घर परिवार चलाना, वृक्षारोपण करना यह भी एक ज्ञान है परन्तु आत्मा का ज्ञान यही पार लगाएगा
  • जो क्षणिक है तथा परिवर्तनशील है उसमें ना फंसकर केवल उसका लाभ ले
  • ॐ आत्मा है, ईश्वर के अनेक नाम है, उनमें से एक नाम ॐ है
  • लिप्त नही हो रहा, कर्म भी कर रहा है फिर भी अकर्ता कहलाता है
  • उसी (ॐ) की इच्छा से ही सारा संसार चल रहा है
  • ॐ से ही सारे उपनिषद्, सारे दर्शन व सारे वेद, सभी कुछ ॐ से ही निकला है
  • ॐ का ध्यान त्रिकुटी में किया जाता है
  • प्रत्येक चक्रो का बीज मंत्र है, ॐ -> आज्ञा चक्र का बीज मंत्र है
  • ॐ एक ऐसा साउंड है जिसका मन ही मन जप कर सकते हैं या ॐ का ध्यान कर सकते हैं
  • आज्ञा चक्र में जाएगे तो वहा का बीज ॐ है, वही से प्रकृति की शुरुवात होती है, वहां मस्तिष्क को उपर रखा गया, वही क्षीर सागर से भी है इसलिए सहस्तार को अलग कर दिया
  • ॐ प्रकृति को सबसे Last है, वही त्रिकुटि पर सविता देव / प्रकाश का ध्यान करे तथा वहा त्रिकुटि मे रहकर मन ही मन ॐ का उच्चारण करते है तो वहा शान्ति व आनन्द की किरणें / लहरे उत्पन्न होती है
  • ॐ की दो विशेषता है = शांति + आनन्द
  • जब जब हम शांति और आनंद महसूस कर रहे हैं तब तब हम ॐ के साथ जुड़े हुए हैं
  • ॐ का Sound बोले या ना बोले परन्तु ॐ के इस आयाम का ध्यान जरूरी है, ईश्वर का उद्देश्य भी शान्ति व आनन्द है
  • ॐ हमारे मन बुद्धि चित्त अंहकार में जो भी अंधेरा है वह साफ करना शुरू करता है
  • यह एक ऐसा Sound है, जैसे हवन करना है तो बोलकर करे या जप करना है तो मन ही मन मानसिक जप करे
  • मन ही बोले तथा मन ही सुने तो यह अनाहत हो जाएगा तथा चमत्कारी काम करेगा

मुण्डिकोपनिषद् में आया है कि जो ब्रह्म का चिन्तन करता है वही स्वयं ब्रह्म स्वरूप हो जाता है तथा वहीं शिव है, उसको पूर्व जन्म में किए हुए पुण्य कर्मो के फल स्वरूप अभ्यास द्वारा यह प्राप्त किया जाता है, का क्या अर्थ है

  • यहा बताया गया है कि ब्रह्म का उठते बैठते चलते फिरते मनन चिंतन करे व परमात्मा का स्मरण (ॐ स्मरा) करे
  • परमात्मा के गुणों का स्मरण करेंगे तो वैसा बनेंगे इसी को धारणा भी कहा जाता है
  • हृदय में क्या धारण किए हैं, हर समय किसके बारे में सोच रहे हैं
  • धारणा से ही ध्यान बनेगा तथा वही समाधि दिलाएगा
  • जिसका ध्यान करेंगे वही प्राप्त होगा
  • घर परिवार / संसार / Negative Thought का ध्यान उनसे साथ उन वृतियों से जोड़ देगा
  • ईश्वर के साथ Meditation करेंगे तो ईश्वर के साथ जोड़ देगा
  • धारणा ही ध्यान बनकर समाधि में ले जाएगा
  • धारणा ही मुख्य है
  • गायंत्री महामंत्र उपर उठाता है
  • गायंत्री मंत्र के एक एक अक्षरों में जो बताया गया है उसे उठते बैठते चलते फिरते सोचिए कि हमने उस अक्षर को कितना पचाया
  • अक्षर को कितना पचाया = उस अक्षर में दिए संदेश को अपने अभ्यास में लाया या नहीं, उस अक्षर को कितना अपने जीवन में घोला
  • मुख्य हमें उन अक्षरो को अपने में घोलना है केवल शब्दो का उच्चारण भर ही नहीं करना
  • बिना अर्थ जाने यदि केवल अक्षर बड़बडाएंगे तो ध्वनि विज्ञान के आधार पर कुछ लाभ तो अवश्य मिलेगा, तब अपनी भाव पक्ष वाली चेतना कमजोर रहेगी
  • जैसे रावण भी गायंत्री जप में बडबडाता था तथा वेदो को भाष्य भी किया परन्तु उसका भाव पक्ष कमजोर रहने के कारण उपर नहीं जा पा रहा था

पैगलोपनिषद् में आया है कि यदि कोई एक पैर पर खडा होकर एक सहस्त्र वर्ष तक भी तप करे तो वह ध्यान योग की षोडश कलाओ में से एक के बराबर भी नहीं है, हम सुनते हैं कि तब से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है परंतु यहां विपरीत सा प्रतीत हो रहा है

  • ऋषि प्रेरित करते है कि हम योग कर रहे है या केवल आसन(शारीरिक व्यायाम) भर कर रहे है
  • Physical Exercise अलग बात है, एक टाग पर खडा रहना तो केवल कष्ट सहना हुआ, ये सब मेघनाथ, हिरण्यकश्यप तथा इस प्रकार अनेको ने किया तो वह मुख्य नहीं है
  • जिससे ईश्वर मिलते है वो एक टाग (एक ही आधार) हमारा रहे, वृक्षासन या उत्कट आसन हमारा Concentration भर बनाता है, इस प्रकार की यौगिक क्रियाएं Parietal Lobe को Control करती है परन्तु उसमें ईश्वर के साथ अनन्त समाप्भियाम हुआ या नहीं तथा इस आसन में ईश्वर के साथ सम्पर्क जोडे या नहीं यह महत्वपूर्ण है
  • यदि एक पैर पर खडा होकर आसन कर रहा है तथा ईश्वर के अलावा कुछ अन्य सोच रहा है तो वह योग आसन नहीं कहलाएगा

यदि एक पैर पर खडा रहकर भावना ब्रह्म की कर रहा है तो उस परिस्थिति में क्या समझे तथा हम तप तो कष्ट देने को ही मानते हैं

  • भावना तो वह सोकर भी शवासन में भी कर सकता है
  • शरीर का कष्ट तप में होता है परन्तु वह कष्ट अति नहीं होना चाहिए
  • इस शरीर के भीतर देवता हैं तथा देवताओ को कष्ट देंगे तो देवता दण्ड देंगे, यह भी हम ध्यान रखें, इस प्रकार के तप को तामस तप कहा गया है तथा ईश्वर इस प्रकार के तप से नहीं मिलते
  • तप की भी अलग अलग श्रेणीया बनाई गई
  • सरल व सुगम मार्ग, उपनिषद् हमें दिखाता है

प्रणवपनिषद् में ॐ के बारे में कह रहे हैं कि ॐ में तीन पूर्ण मात्रा व एक अर्ध मात्रा है, इसमें क्या हम अ कहकर उ कहकर या म कहकर भी ॐ को ध्यान कर सकते हैं

  • नहीं कर सकते, तीनो का मिश्रण ॐ है
  • अ कहेंगे तो स्वर का एक अक्षर कहा जाएगा
  • ॐ में सब शामिल है, ॐ में सारे स्वर व सारे व्यंजन शामिल हैं, यदि हम केवल अ उ म से ही व्याख्या कर देंगे तो बाकी अन्य अक्षर कहा जाएगे, उनमें भी ॐ ही है, उन सभी की उत्पत्ति का कारण ॐ ही है
  • ईश्वर का ई भी ॐ में है
  • अ का अर्थ केवल Phonetic sound भर नहीं है तथा अ केवल अक्षर भर नहीं है, अ का अर्थ यहा अविनाशी है, इसमें सृजन का गुण है
  • उ का अर्थ -> इसमें पालन का गुण है
  • म का अर्थ -> इसमें संहार का गुण है
  • ये तीनों गुण जिसमें हो यह विशेषता ॐ में है
  • इसी में ऋक यजु साम भी है
  • भू: भुव: स्वः के साथ साथ महः जनः तपः व सत्यम भी तो है
  • यह सब पढ़ाने के लिए है कि ॐ से ही सारी सृष्टि उत्पन्न हुई, इसलिए केवल अ उ म में ही फंसकर नहीं रह जाना है
  • समग्र को लेना है तो गायंत्री महामंत्र में समग्रता है तथा ॐ उसका बीज है, भू भुवः स्वः तीन शांखाए हो गई तथा फिर सारी टहनियां हो गई तथा उसी में फूल फल पत्ते सभी शामिल हैं
  • ॐ बीज / जगतबीज है ना कि केवल तीन अक्षरों का बीज है
  • यह दिव्य वाणी( ॐ ) सारी ध्वनियो को उत्पन्न करती है, सभी देवी देवताओ व सारी सृष्टि को उत्पन्न करती है
  • सभी जीव जन्तुओ द्वारा उच्चारण की जाने वाली ध्वनि भी ॐ से ही उत्पन्न हुई
  • यहा अलग अलग इसलिए कह दिया कि यहा सारी ॐ की ही शांखाए है, सारे संसार में धागे के रूप में ॐ घुला हुआ है
  • ॐ में यदि ऋक यजु साम है तो अर्थव इन तीनो का Application है
  • ॐ के अनन्त अर्थ है
  • सारी की सारी व्याख्याएं ॐ में आ जाती है
  • ॐ मुकुट है, प्रणव है तथा ॐ से उपर भी ईश्वर है, जहा प्रकृति व ब्रह्म टकराया वहा पर ॐ है
  • इसका अर्थ कि हमारी यात्रा ॐ से भी उपर है तथा हमारी यात्रा ॐ से भी उपर होनी चाहिए
  • ॐ धनुष है तथा तीर आत्मा है, ॐ का Help आगे जाने के लिए ले सकते है, इस संसार में तैरने के लिए यह एक अच्छा ध्वनि विज्ञान है, इससे हमें एक बल मिलता है तथा शरीर की शक्तियां विकसित होती हैं
  • इसे हम अलग ना करे, सारी ध्वनियों का यही उदगम है

वांग्मय 22 में आया है कि प्रख्यात मनोविशेषज्ञ जुंद कहते हैं कि मात्र अचेतन ही सब कुछ नही है वरन इससे भी आगे की परत उच्च चेतन का एक अलग अस्तित्व है, आदर्शवादी प्रेरणाएं एवं उमगें वही से उठती है, अचेतन तो अभ्यस्त आदतो का संग्रह समुच्चय भर है, क्या उच्च चेतन का अर्थ यहा सुपरचेतन से है तथा क्या आदर्शवादी प्रेरणाएं यही सुपरचेतन मन से उठती है

  • यहा अचेतन शब्द अवचेतन मन के लिए लिया गया है
  • अवचेतन व सुपरचेतन दोनो अचेतन में है, इस पर हमारा अपना Command नहीं है
  • हमारी आदते हमारे अतःकरण में है यह अंतःकरण मन बुद्धि चित्त अहंकार से बना है
  • अतःकरण को ही अवचेतन कह देते हैं
  • मन के भी दो भाग हो जाते है -> मनोमय में भी मन है तथा विज्ञानमय में भी अतःकरण तथा अन्तःकरण में भी मन है, यह अतःकरण में जो मन है वह शुद्ध मन है तथा मनोमय में विषयाआसत्त मन है
  • मनोमयकोश भी स्वतंत्र है और विज्ञानमय कोश भी स्वतंत्र है
  • विज्ञानमय कोश में जो अन्तःकरण है, उसी अन्तःकरण को ही अन्तरात्मा कहते है, उसी को सुपरचेतन कहा जाता है
  • वहा अन्तःकरण से ही हमारे विचार व भावनाएं उठती है
  • संस्कार कहा से आते है इसके लिए मस्तिष्क का विज्ञान समझना होगा
  • Frontal Lobe = जागृत मन = Concious Mind = इसे अभ्यास के द्वारा प्रशिक्षण से बढ़ाया जाए, जब हम संसार में कुछ भी निर्णय लेते है तो यह Thought Process में काम आता है
  • भीतर की जो आदते हमारे भीतर आ गई है तो वहा यह Thought Process गायब हो जाता है, यदि हमारे संस्कार पहले से है तथा परिस्थिया आ गई तो आदमी उबल पड़ता है तथा नहीं चाहते हुए भी कुछ ऐसा कर देता है जो उसके अपने नियंत्रण में नहीं होता, उसी को चित्त कहा गया वहा (अवचेतन मन / मस्तिष्क का Limbic System) की सफाई जरूरी होती है, वही Heart Beat भी नियंत्रित होती है वहा Hypothalmus भी अवचेतन मन में आता है, वही Hippocampus, Limbic System व Amgydala भी है
  • यही चारो बीच वाला हिस्सा है इसी की सफाई Meditation से / प्राणायाम से / साधना से / की जाती है
  • प्राणायाम की पहुच भी केवल Criniel Nerve है तथा यहा से सारी नाड़ियां Sensory Organ में जाती है
  • यही Criniel Nerve जहा से आदतो की जड़े गहरी भीतर तक चली गई तो इसे अचेतन कहा गया है
  • सोए रहने पर भी Heart Beat चल रहा है तो यहा अवचेतन सब काम करवाता रहता है
  • कुछ योगी अपनी Heart Beat को भी कम कर डालते हैं, ध्यान में जाकर Heart Beat बिल्कुल कम कर देते हैं
  • संत हरदास तो अपनी Heart Beat पर पूरा नियंत्रण था तथा Superconcious में जाकर जब चाहे तब नियंत्रण में कर लेते थे
  • Super Concious -> Parietal व Occipital वाला Area है, इसे Dark Area भी कहा जाता है, 2/3rd से अधिक यही पर है
  • ऋषि लोग या अवतारी चेतनाएं जैसे गुरुदेव / बुद्ध / 10 बड़े अवतार हुए तो वो सारे के सारे अपने Dark Area को जगाए रहते हैं

वृक्षासन का भी अपना लाभ है तथा यह आसन भी किसी ऋषि की ही खोज रही होगी, जब ऋषि ने कहा कि केवल वृक्षासन से आत्मा नही मिलता है तो क्या वे ये कहना चाह रहे है कि अतिश्योक्ति नहीं करनी है तथा लाभ लेना हो तो ले ले

  • इससे लाभ Physical मिलेगा तथा यह Physical -> parietal Lobe को balance करता है ताकि गिरे मत
    तथा parietal Lobe के Balance होने से दोनो तरफ हमारी बुद्धि रहे
  • यह वृक्षासन केवल आसन की ही परिभाषा में आया है
  • इस वृक्षासन में जो आसन शब्द है -> वह योगासन में नहीं आया तथा इसे कहेंगे कि यह केवल एक पैर वाला व्यायाम भर कर रहा है
  • पतंजलि ने कहा कि आप हिले डुले नहीं व स्थिर रहें लेकिन अनन्त समापिभ्याम भी कहा है, ईश्वर अनन्त है -> परमात्मा में स्वयं को Tuning कर डाले, वो सिद्धी देगा
  • एक पैर पर खड़े होंगे तो एक पैर कमजोर होगा व एक पैर मजबूत होगा
  • Parietal Lobe में संतुलन लाना है तथा उसमें फंसकर नहीं रहना
  • वृक्षासन ही केवल एक उपाय नहीं है, अनुलोम विलोम कर लेगा तो भी Parietal Lobe बैलेंस हो जाएगा तथा जिसका Accident में पैर कट गया तो वह कैसे करेगा
  • तो जिसको जैसी जरूरत है, वह वैसा आसन वह अपना ले
  • आसन शारीरिक कचरों को हटाता है इसलिए तप कहा गया, तप का उद्देश्य केवल Toxines को हटाना है
  • इस उपनिषद् का कहना है कि योग से ईश्वर मिलता है केवल तप से ईश्वर नहीं मिलेगा
  • हठ योग एक Balance बनाता है / एक Ground बनाता है ताकि ईश्वर को साधा जा सके
  • योग कुण्डलिनीपनिषद् में कुण्डलिनी जागरण में -> पदमासन, सिद्धासन व स्वस्तिक आसन / सुखासन – केवल इन्हीं तीनो को लिया है

जब Paralysis में हम थे तब हमने शवासन में भी सारे लाभ ले लिए गये थे तो वहा उस अवस्था में भी तो कुण्डलिनी जगी होगी तभी तो ignite हुआ होगा, जहा प्राण नहीं था वहा भी प्राण फैक दिया होगा

  • गुरुदेव ने भी एक बार कहा की सबसे अच्छा शवासन है इसी को स्थिलीकरण मुद्रा भी कहते हैं, यह विष्णु ग्रंथि को जगा देता है

जब सारे ग्रह एक साथ होते है तो क्या होता है, इस घटना का क्या प्रभाव पृथ्वी व मनुष्यों पर पडता है

  • सभी ग्रह तथा जितने भी आकाश में ज्योर्तिपिण्ड दिखाई पड रहे है, ये सब चुम्बक है तथा हर पिण्ड भी एक चुम्बक है, हमारी पृथ्वी भी चुम्बक है तथा मनुष्य भी चुम्बक है
  • एक चुम्बक का प्रभाव दूसरे चुम्बक पर पडता ही पडता है
  • पहले एक चुम्बक एक रेखा में था परन्तु अभी यदि दो चुम्बक एक रेखा में कर देगें तो उनका चुम्बकीय बल बढ़ जाएगा
  • सभी ग्रहों के एक रेखा में होने पर इसका चुम्बकीय प्रभाव पृथ्वी पर व पृथ्वीवासियों पर भी होगा
  • पुर्णिमा के दिन चंद्रमा के कारण समुद्र में ज्वराभाटा व उछाल आता है तथा पूर्णिमा के दिन मस्तिष्क अधिक चंचल भी रहता है तथा आरिपक्व मस्तिष्क वाले ऐसे समय में गलत कार्य भी कर बैठते हैं
  • यदि हम अपने को विज्ञानमय कोश में बना कर रखे तो संसार का कोई भी Magnetic Field साधक को परेशान नहीं कर सकता क्योंकि सारे ग्रह व नक्षत्रों का प्रभाव केवल मनोमय कोश तक है, आत्मा पर नहीं है
  • इसलिए सूर्य ग्रहण के समय कहा जाता है कि आत्मसाधना करे -> आत्मा का ध्यान करे तथा जप करते रहे ताकि इसके ग्रहण के प्रभाव (Magnetic Field) को काट दे तो सुर्य ग्रहण की स्थिति में की गई साधना का लाभ अपेक्षाकृत अधिक मिलता है

महाकुंभ में जो हठ योगी साधनाएं कर रहे है वह पूर्ण रूप से गलत नहीं है तथा यह हठ योग भी अपना काम करता है, क्या यह सही है

  • विज्ञान का यह नियम है की क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही होगी
  • एक साधक एक हाथ पर खडे होकर साधना कर रहे थे तो एक हाथ मजबूत हो गया व एक हाथ सूख गया
  • शरीर का विज्ञान तो काम करेगा ही करेगा
  • हठ योग को पूर्ण योग में नहीं लिया गया, वह केवल हमारा आधार बनाता है तो कुछ दिनों के लिए कर सकते हैं
  • किसी की नकल हम नहीं कर सकते, हमें तो दोनो हाथों से काम लेना है
  • हठ योग वाले तप को, तामस तप में लिया गया है
  • तप के भी अनेक प्रकार होते हैं -> सतोगुणी तप, राजसिक तप व तामस तप
  • हठ योग कर सकते हैं परन्तु इसके परिणाम भी देखने होगे कि इसे करने का क्या परिणाम निकला

यदि सुपरचेतन तक ही पहुंचने का लक्ष्य है तथा शरीर स्वस्थ है तो प्राणायाम ध्यान जप तथा इसके पहले के क्रिया योगो को क्या गौण भी किया जा सकता है

  • शरीर स्वस्थ है तो इसका अर्थ कि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए वे सभी क्रिया योग किए गए हैं, जो आहार विहार का संयम करेंगे उन्ही का शरीर स्वस्थ रहेगा
  • शरीर की स्वस्थता -> यह एक उपलब्धि है तथा पहले की गई क्रियाओं के परिणामों का Result है तथा अवश्य ही वह व्यक्ति प्रकृति के सान्धिय में रहा होगा तभी शरीर स्वस्थ है
  • उतना करके ही आगे की कक्षा में हम जाए
  • हमें उतना ही ध्यान देना है जितने में अन्यमय कोश के लाभ हमें मिलने लगे
  • हमारी यात्रा तो आनन्दमय कोश को पार करना था परन्तु हम आसन आहार शुद्धि, इन्हीं में जीवन भर फंसे रह जाते हैं
  • प्राणायाम की भी एक परिणिति होती है कि ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या -> जब तक यह बौधत्व जीवन में नहीं आ जाता तब तक प्राणायाम सिद्ध नही होता
  • जिस उद्देश्य को लेकर हमें जीवन मिला वह कर रहे है अथवा नहीं, यह विचारणीय है, इसलिए हठ योग पूर्ण योग नहीं कहलाएगा

मन के निग्रह से कैसे उत्तम परिस्थितियां एवं सर्वश्रेष्ठ चिर सम्पत्ति प्राप्त होतीं है कृप्या प्रकाश डाला जाय

  • यह हमें चित्त वृतियों के निरोध से प्राप्त होती है, मन अभ्यस्त आदतों में बाहर चला जा रहा था परंतु हमें तृप्ति तुष्टि और शांति को पाना है तो मन को बार-बार ज्ञानात्मक ढंग से समझाना पड़ेगा ताकि भाग दौड़ बहिर्मुखी ना हो
  • बहिर्मुखी जाएगा तो वृतियां कहलाएगा तथा अंर्तमुखी जाएगा तो निरोध/निग्रह कहा जाएगा
  • अन्तमुखी जाएगा तभी भीतर जाकर अपने संस्कारो को ठीक कर पाएगा तथा अपनी बुराईयो को ढूढ पाएगा तभी तो अपनी सफाई भी कर पाएगा, तभी वह यह जान पाएगा कि उसके मस्तिष्क में कहां-कहां पर अवरोध है जिस के कारण वह आत्म साक्षात्कार नहीं कर पा रहा, उसे करने को यहा निग्रह कहा गया
  • अन्तर्जगत की यात्रा भी जरूरी है तथा अन्तर्जगत की यात्रा को ही चेतना की शिखर यात्रा कहते हैं
  • सभी तरह की साधनाओं का उददेश्य आत्म साक्षात्कार व ईश्वर साक्षात्कार ही है, उस दिशा में मन ही हमारा माध्यम बनेगा
  • मन संसार की तरफ भी जाएगा तथा मन को शुद्ध करके उसे विज्ञानमय की तरफ भी ले जाएंगे तब जाकर उस मन को अब समष्टि मन से जोड़ेंगे
  • यह निग्रह की प्रक्रिया होती है
  • गुरुदेव ने कहा कि आनन्दमय कोश का दिव्य प्रकाश कांति है
  • कांति = तृप्ति + तुष्टि + शांति
  • ये सब दिव्य सम्पत्ति में आता है

जब श्वास पर ध्यान लगाते हैं तो ॐ आता है और ॐ जाता है तो क्या ॐ का यह जप सही है और ॐ का यह जप किस तरह से किया जाए, इस पर प्रकाश डाले

  • यह सही है तथा इसे सोहम् साधना में ले सकते हैं
  • सोहम् में हम ईश्वरीय गुणो को भी स्मरण करे, केवल ध्वनि पर फंसे नहीं
  • ईश्वर का तेज अपने भीतर आ रहा है तथा अपना स्वयं का Control हटा रहे हैं तथा अपने मन बुद्धि चित्त अहंकार को ईश्वर के प्रति समर्पित कर रहे हैं तथा ये श्वासो की गति के साथ जोड़ना होता है -> यही सोहम् साधना की परिणिति देगा
  • गुरुदेव की परिभाषा सोहम् साधना के लिए बिल्कुल अलग है -> इस दिशा में हम आगे बढ़े
  • शरीर पर अपना अतिक्रमण हटाना है

ऐतरेयोपनिषद् के 12 वें श्लोक में टीका में लिखा है कि परमात्मा जन्म के समय मनुष्य शरीर  के ब्रह्मरंध्र को विदीर्ण करके उसमें समा गया, तो क्या वह सहस्रार चक्र के रूप में आया तथा पूरे शरीर में चक्रों और चेतना के रूप में फैल गया ? या कोई और तथ्य है ?

  • अन्य तथ्य भी है
  • यहा पर तीन मुहान मिलते हैं = एक Frontal Lobe + Parietal का बीच वाला मुहान + Parietal व Occipital का तीन मुहान -> यह सहस्तार कहलाता है
  • सामने वाले को मुर्धनी कहते है यही पर धक धक का कंपन होता है -> यही से वह विदीर्ण करके गया
  • यह एक Pathway है तथा यह सीधे Third Ventrical की तरफ जाता है
  • सीधे जहा Mid Brain आ जाता है वहा से यह संबंध रख लेता है, यहा त्रिकुटि का स्थान भी है

सर्दियों में प्रणायाम घर के अंदर करे या बाहर करे

  • घर के अन्दर कर सकते है, ध्यान रहे कि भीतर सीलन न हो, Ventilation भी अच्छा हो तथा Hygiene भी होना चाहिए
  • घर में यज्ञ करके या गुग्गल जलाकर भीतर के वातावरण को शुद्ध करके फिर प्राणायाम करे
  • प्राणायाम भीतर भी करे तो ध्यान रहे कि शुद्ध हवा मिलना चाहिए         🙏

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